इन रंगों में वो रंग कहाँ
ये रंग नहीं, है फीका पानी
जो स्वाद थी तुम्हारी
भरी इस ज़िन्दगी में
जो तुम नहीं
तो वो स्वाद नहीं।
सुनो प्रेयसी
थी अबीर जो सिंदूरी
उड़ गयी शायद
बीतते वक़्त की आंधी में।
लो आज फिर जो आयी है होली
एक चुटकी तुम अपने हाथों से
वो लाल हरी चूड़ियां की खनखन से
उड़ा देना दखिन की ओर
और रंगरेज मेरे इन रंगों को
फिर घोल देना बहती झरनों में
और ले आना मेरे आँगन में
फिर से एक ऐसी होली
जिसमे रंग हो उसके गुलाल की सिन्दूरी
जिससे कम हो जाये
फिर हमारे दिलों की ये दूरी।
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