आज़ादी हम भी चाहते हैं
तुमसे आज़ादी।
तुम्हारे मांगों से आज़ादी
ये दंगों से आज़ादी
जिन शोलों में तुम हो लिपटते
मेरे आशाओं से भरे तिरंगे को
मेरी आन, मेरी शान,
मेरे ज़मीर के निशानी को
उन शोलों से आज़ादी।
जिस आक्रोश से मार गिराते हो
मेरे चमन के लाडलों को
मेरे वतन के सिपाहियों को
उस आक्रोश से आज़ादी।
आज़ादी हम भी चाहते हैं
तुमसे आज़ादी
जिस मिटटी कि खुश्बु है हिंदुस्तानी
जिस मिटटी में है सिमटी
यादें हमारी तुमसे कई पुरानि,
चाहते है हम भी आज़ादी
तुमसे
उस मिटटी की आज़ादी।
केहना तो बहुत कुछ है दोस्त
पर है हम पर भी कुछ पाबन्दी,
ये तुम्हे है अब सोचना
तुम्हारी मांग जो है आज़ादी
है किस्से ये आज़ादी
हमारे मिटटी से तुम्हारी
या तुम्हारी सोच से
है हमारी आज़ादी?
आज़ादी हम भी चाहते हैं,
तुमसे आज़ादी।
.... This is my attempt to voice the intense unhappiness that the state of affairs in our state of Kashmir is causing to every Indian. I wish our politicians and media would stand up for the country rather than help us burn down our own attic. The land from where flows down this ancient civilization, the land where our greatest sages once tread unhindered, and our oldest thoughts rest, cannot be lost. Must not be lost, whatever the cost. Whatever the cost.
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